मेरा पहला ख़्वाब एक क्रिकेट खिलाडी बनना था, दूसरा नक़्क़ाद या रिसर्च स्कॉलर, तीसरे-चौथे का यक़ीन से नहीं कह सकता। अमृतसर में गुज़रा लेक्चरर-शिप का वक़्त मेरे सब से ख़ुशगवार और यादगार दिनों में से है। मैंने दाग़, मीर और ग़ालिब को भी पढ़ा और में ये तस्लीम करना चाहता हूँ के ग़ालिब मेरी समझ से परे ही रहे, इसका ये मतलब नहीं के दाग़ और मीर को मैं पूरी तरह समझ पाया, लेकिन इन शायरों ने मेरे ज़हन पर अमिट छाप छोड़ी।” एक ऐसा हासिल-ऐ-कलाम शख़्स जिस की ज़िन्दगी का सफ़र एक लंबी सियाह रात के बाद दूसरी भयानक बे-पयाँ काली रात में जा ठहरा। एक ऐसी ज़िंदा-दिल, लर्ज़ा-अंगेज़ आवाज़ जो हर कसो नाकस (हर एक) के कानों में आज़ान की तरह गूंजती तो रही लेकिन नमाज़ को हासिल न हुई। एक ऐसा ज़हन, जिसकी फ़िक्र और दूरअंदेशी का हर दौर काईल रहा, जिसकी ऐलानिया दबंगई न ज़िंदाँ में दफ़्न हुई न बाहर ख़ास-ओ-आम के दरम्यान। हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है (लोह-ए-अज़ल — सनातन पन्ना) जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (कोह-ए-गरां — घने पहाड़) रुई की तरह उड़ जाएँगे हम महक़ूमों के पाँव तले (महक़ूम