मेरा पहला ख़्वाब एक क्रिकेट खिलाडी बनना था, दूसरा नक़्क़ाद या रिसर्च स्कॉलर, तीसरे-चौथे का यक़ीन से नहीं कह सकता। अमृतसर में गुज़रा लेक्चरर-शिप का वक़्त मेरे सब से ख़ुशगवार और यादगार दिनों में से है। मैंने दाग़, मीर और ग़ालिब को भी पढ़ा और में ये तस्लीम करना चाहता हूँ के ग़ालिब मेरी समझ से परे ही रहे, इसका ये मतलब नहीं के दाग़ और मीर को मैं पूरी तरह समझ पाया, लेकिन इन शायरों ने मेरे ज़हन पर अमिट छाप छोड़ी।”
एक ऐसा हासिल-ऐ-कलाम शख़्स जिस की ज़िन्दगी का सफ़र एक लंबी सियाह रात के बाद दूसरी भयानक बे-पयाँ काली रात में जा ठहरा। एक ऐसी ज़िंदा-दिल, लर्ज़ा-अंगेज़ आवाज़ जो हर कसो नाकस (हर एक) के कानों में आज़ान की तरह गूंजती तो रही लेकिन नमाज़ को हासिल न हुई। एक ऐसा ज़हन, जिसकी फ़िक्र और दूरअंदेशी का हर दौर काईल रहा, जिसकी ऐलानिया दबंगई न ज़िंदाँ में दफ़्न हुई न बाहर ख़ास-ओ-आम के दरम्यान।
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है (लोह-ए-अज़ल — सनातन पन्ना)
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (कोह-ए-गरां — घने पहाड़)
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले (महक़ूमों — रिआया/ग़ुलाम)
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम (मरदूद-ए-हरम — पवित्रता या ईश्वर से वियोग)
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
फ़ैज़ की पैदाईश 13 फरबरी 1911 को मग़रबी पंजाब (पाकिस्तान) के सियालकोट में सुल्तान मुहम्मद ख़ान के घर हुई जो बचपन में ही इस डर से घर से काबुल भाग गए थे क्योंकि वो गाँव में रहकर वो एक चरवाहे की ज़िन्दगी नहीं गुज़ारना चाहते थे । ये सुल्तान ख़ान के बचपन में उठाये जोखिम का ही नतीजा था के अपनी तरह वो अपने बेटे को भी आला तालीम दिलवा पाने में कामयाब हुए। फ़ैज़ ने सियालकोट के शानदार मुर्रे कॉलेज जो की स्कॉटलैंड चर्च चलाता था से तालीम हासिल कर बाद में लाहौर के सरकारी कॉलेज में दाख़िला ले लिया, जहाँ से उन्होंने अंग्रेज़ी और अरबी ज़ुबानों में डिग्री हासिल की। 1934 में कॉलेज पास करने तक फ़ैज़ अदबी हलक़ों में एक ख़ासा नाम हो गए थे। 1935 में अमृतसर के मुस्लिम ऐंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज में बतौर अंग्रेज़ी लेक्चरर के मुलाज़मत ले ली और यहीं 7 बरस के क़ियाम के दौरान इन्होंने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का मुतालअः किया और आने वाली ज़िन्दगी की नींव रखी।
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए ख़ून में नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
अंग्रेज़ी तरबियत और सोहबत के चलते एक अंग्रेज़ दोशीज़ा, एलीस जॉर्ज से 1941 में शादी कर ली और उस ज़माने के वॉर पब्लिसिटी डिपार्टमेंट ऑफ़ गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया में शामिल हो कर एक लंबे वक़्त तक जुड़े रहे और इस दौरान 1944 में लेफ्टिनेंट कर्नल भी बन गए। इन्हें बाद में अंग्रेज़ी सरकार ने जंग में उनके क़ाबिल-ऐ-तारीफ़ काम के लिए आर्डर ऑफ़ दी ब्रिटिश एम्पायर (Order of the British Empire) नाम के ख़िताब से भी नवाज़ा। इसी बीच बंटवारे का साल 1947 आ गया। किसने क्या खोया, क्या पाया, इस का हिसाब बेहिसाब हो चला था।
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-ग़ज़ीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंजिल
कहीं तो होगा शब-ऐ-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ऐ-गम-ऐ-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ऐ-हुस्न की बे-सब्र खाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ऐ-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीना-ऐ-नूर का का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फिराक-ऐ-जुल्मत-ऐ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ऐ-मंजिल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ऐ-दर्द का दस्तूर
निशात-ऐ-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ऐ-हिज़र-ऐ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ऐ-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ऐ-सबा , किधर को गई
अभी चिराग-ऐ-सर-ऐ-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई….
1947 तक हिंदुस्तान की आब-ओ-हवा बदल चुकी थी और बदल चूका था हर ख़ास-ओ-आम का मिज़ाज। इसी बीच 1947 के शुरुआत के दिनों में मियाँ इफ़्तिख़ारूद्दीन ने लाहौर में प्रोग्रेसिव पेपर्स लिमिटेड के बैनर तले तरक़्क़ी पसंद ख़्यालात को फ़ैलाने की नीयत से पाकिस्तान टाइम्स (अंग्रेज़ी डेली), इमरोज़ (उर्दू डेली) और लाईल-ओ-नहर नींव रखी । फ़ैज़ और उनकी सोच से इत्तेफ़ाक़ रखने वाले दूसरे अदीब चाहते थे कि पाकिस्तान को तरक़्क़ी पसंद राह पर डाला जाए लेकिन अभी ये जिद्दो-जहद चल ही रही थी कि 1958 में फील्ड मार्शल अयूब ख़ान ने ऐसी सभी कोशिशों को कुचलने की सोच ली और तरक़्क़ी पसंद पर्चों और अख़बारों के साथ-साथ सभी रिसालों और अख़बारों को बदनाम नेशनल प्रेस ट्रस्ट के दायरे में ला कर रख दिया।
आज फिर हुस्न-ऐ-दिलारा की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदा सी आँखें, काजल लकीर
रंग-ऐ-रुख़्सार पे हल्का सा वो ग़ाज़े का ग़ुबार
संदली हाथ पे धुंदली सी हिना की तहरीर
अपने अफ़कार की, अशआर की दुनिया है यही
जान-ऐ-मज़मून है यही, शाहिद-ऐ-माना है यही
इस से क़ब्ल 1951 में लियाक़त अली ख़ान के वक़्त फ़ैज़ को रावलपिंडी Conspiracy केस में करीबन 5 बरसों के लिए बेवजह अलग-अलग जेलों में बंदी रहे । इस दौरान उन्होंने एक ख़ुतूत का ज़ख़ीरा ‘सलीबें मेरे दरीचे में’ और दो मजमुए ‘दस्त-ऐ-सबा’ और ‘ज़िंदाँ-नामा’ तख़लीक़ किये और 1955 में रिहा हो कर वापस प्रोग्रेसिव पेपर्स लिमिटेड चले गए । अभी तक फ़ैज़ समझ चुके थे के पाकिस्तान में प्रेस की आज़ादी एक हसीं ख़्वाब से ज़्यादा कुछ नहीं।
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम
इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हमजिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैंलेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के थोड़े हैं
उन्होंने एक दूसरा रास्ता अपनी बात कहने के लिए ढूंढ निकाला, ये था सिनेमा का रास्ता। इन्होंने ऐ जे कारदार की फ़िल्म ‘जागो हुआ सवेरा’ जो एक बंगाली नोवेल पर आधारित थी, के लिए स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले लिखा, जो ख़ासी मशहूर हुई और कई अवॉर्ड भी हासिल किये। फ़ैज़ ने मुल्क के मसलों को उजाकर करने और ख़ास-ओ-आम के बीच बहस के लिए ला कर खड़ा करने का ये नया ज़रिया ढूंढ निकाला था। इस बीच फ़ैज़ ने बहुत सी फ़िल्मों के लिए स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले और गीत भी लिखे जो की ज़्यादातर तरक़्क़ी पसंद मुस्नफ़ीन ने बनाई थीं। फ़ैज़ की आख़िरी फ़िल्म जो उन्होंने कारदार के साथ 1977 में बनाई थी रिलीज़ नहीं हो पायी, इस की वजह ज़िया उल हक़ के हाथों ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के तख़्ता पलट को बताया जाता है। ज़िया की हुक़ूमत ने इस फ़िल्म को मिलिट्री और इस्लाम के ख़िलाफ़ पाया जिसके चलते फ़ैज़ को मज़ीद मुश्किलात का सामना करना पड़ा।
अब क्या देखें राह तुम्हारी
बीत चली है रात
छोड़ो ग़म की बात
थम गए आँसू , थक गयीं अखियाँ,
गुज़र गयी बरसात,
छोड़ो ग़म की बात (फ़िल्म ‘जागो हुआ सवेरा’ का एक गीत)
‘नक़्श-ऐ-फ़रयादी’ फ़ैज़ के अदबी तआक़ुब का मील का पत्थर है, जिसने उर्दू अदब के हलक़ों में कोहराम मचा दिया। फ़ैज़ बहुत कम वक़्त में तरक़्क़ी पसंद शायरी की बुलंदी पर नज़र आने लगे। शायर की ज़िन्दगी रहते इतनी कामयाबी शायद मिर्ज़ा ग़ालिब को भी नसीब नहीं हुई थी। फ़ैज़ की शख़्सियत और फ़िक्र दोनों को हर ख़ास-ओ-आम ने खुले दिल से दोनों बाहों में ले लिया।
राज़े-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लियाऔर क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
फ़ैज़ साहब बेफ़िक्र, बेपरवाह और रूमानी फ़ितरत के शख़्स थे, इस बात को उनकी शरीक़-ऐ-हयात के तबसिरे से ही समझ लेते हैं -
“फ़नकार की बाज़ कोताहियों से हर शख़्स का वास्ता पड़ता ही रहता है। वो लोगों से मिलने के किये वायदे अक्सर भूल जाता है, उसे अपनी जेब, बटुए और ग़िरेबान का होश नहीं रहता, जिसके चलते पूरा घर सर पर उठा लेता है। कहीं दूर ट्रैन से सफ़र करना हो तो ज़्यादातर ट्रैन रवाना होने के बाद ही पहुँचता है। उसका फाउंटेन पेन अक्सर गुम या चोरी हो जाता है। ये तमाम बातें उसके अज़ीज़ों को बर्दाश्त करनी पड़ती हैं लेकिन अगर दिन भर की मुसलसल उलझनों और परेशानियों का नतीजा किसी नज़्म, किसी शबीह या किसी शाहकार की शक्ल में ज़ाहिर हो जाए तो उन्हें अपनी क़िस्मत पर शाकिर होना चाहिए।
वो शादी के बाद के किस्से सुनाते हुए कहती है -
“हमारी नई-नई शादी हुई थी, आमदनी बहुत कम थी और जंग छिड़ने की वजह से कीमतें आसमान छु रही थीं। इस के बावजूद मेरी ज़िद पर फ़ैज़ ने एक सूट बनवा ही डाला जो उस ज़माने में ऐय्याशी से भी बढ़कर था। फ़ैज़ सूट लेने के लिए अमृतसर गए और उसी रात वापिस लाहौर लौटने वाले थे। उन दिनों हमारा घर शहर से दूर एक नहर के करीब अलग-थलग सा था, जहाँ जाने के लिए कोई रिक्शा वाला तैयार नहीं होता था। बड़ी मुश्किल से फ़ैज़ ने एक रिक्शा वाले को तैयार किया जिसने उसे घर से तक़रीबन एक मील पहले ही उतार दिया, जहाँ से फ़ैज़ बग़ल में उस क़ीमती बण्डल को उठाये पैदल ही घर आ गए और मैंने बिना वक़्त गंवाये बण्डल उन से छीन लिया। लेकिन बण्डल हाथ में लेते ही मेरा माथा ठनका, वो बण्डल बहुल हल्का था, असल में उस से कोट नदारद था। मेरी ज़िद पर फ़ैज़ वापिस एक मील टॉर्च लेकर कोट ढूंढने गए लेकिन ख़ाली हाथ ही लौटना पड़ा। ये मेरा पहला बड़ा तजुर्बा था। “
“…चंद महीनों बाद कपड़ों से भरा हुआ एक सूटकेस ग़ायब हो गया। …… 1947 में मेरे तमाम ज़ेवरात चोरी हो गए। मेरे चेहरे पर एहसासे-महरूमी की झलक देखकर फ़ैज़ कहने लगे, “तुमने ग़ालिब का वो शेर नहीं सुना ?” -
न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को”
“जून 1953 में जब फ़ैज़ हैदराबाद जेल में थे और मैं अकेले बच्चों की परवरिश करते हुए ख़ुद को बेसहारा महसूस कर रही थी, ऐसे में एक रोज़ मैंने फ़ैज़ को ख़त लिखा — ‘बच्चों की परवरिश में बाप और माँ दोनों के फ़राइज़ अंजाम देना मेरे लिये बहुत मुश्किल हो रहा है ?’ जवाब में ख़त मिला- ‘मेरे बच्चों को तुमसे अच्छी माँ नहीं मिल सकती, कितने ख़ुशनसीब हैं वे?’”
तुम आये हो न शबे-इन्तज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार — बार गुज़री है
जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
फ़ैज़ बहुत नर्म दिल शख़्स थे, ज़ब्त-ए-जुनूँ फ़ैज़ में जोश-ए-जुनूँ से बढ़कर था, उन्हें गुस्सा कभी नहीं आता था। शादीशुदा ज़िन्दगी में भी उनकी शरीक़-ऐ-हयात ने कभी कोई ऐसा किस्सा दर्ज नहीं किया। एक मर्तबा जोश साहब ने फ़ैज़ की बीवी से पुछा, “आप और फ़ैज़ में लड़ाई भी होती है या नहीं ?” तो जवाब था — “नहीं।” ये सुनकर जोश बड़े अफ़सोस के साथ सर हिलाते हुए कहने लगे, “कितने अफ़सोस की बात है? फिर आप दोनों में मोहब्बत कैसे हो सकती है?” फ़ैज़ की नज़र में इंसानी फ़ितरत का जाएज़ा सिर्फ़ ख़ामियों को लेकर ही क्यों किया जाए, उसकी ख़ूबियों को लेकर क्यों नहीं।
तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
आने वाले लम्हों की अमानत बन जायेँ
तुम जो ठहर जाओ तो ये रात, महताब
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायेँ
फ़ैज़ ने 1950 तक शायरी लिखना बहुत कम कर दिया था। उनका कहना था, “शायद ज़िन्दगी में तक़लीफ़ और ग़म कुछ कम हो गए हैं और शायद मैं बहुत ज़्यादा आसूदः ख़ातिर हो गया हूँ। “
वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम कियाकाम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
जब फ़ैज़ जेल में थे उसी वक़्त तरक़्क़ी पसंद अदब के सरबराह सैय्यद सज्जाद ज़हीर भी रावलपिंडी वाले केस में सज़ा काट रहे थे। एक दिन इत्तिला मिली के ‘दस्त-ऐ-सबा’ शाया हो गयी, सारे क़ैदीयों ने जो फ़ैज़ के मुंह से इसमें शामिल शायरी पहले ही सुन चुके थे, इस ख़बर से ग़ैर मामूली मसर्रत पाई और जेल ही में पार्टी भी की। इस मौक़े पर ज़हीर ने कहा — “बहुत अरसा गुज़र जाने के बाद जब लोग रावलपिंडी साज़िश के मुक़द्दमे को भूल जायेंगे और पाकिस्तान की अदबी तारीख़ जब 1952 के अहम् वाक़ियात पर नज़र डालेगी तो ग़ालिबन उस साल का सबसे अहम् तारीख़ी वाक़िया नज़्मों की इस छोटी सी किताब की इशाअत को ही क़रार देगी। “
अब वही हर्फ़े-जुनूं सबकी ज़बां ठहरी है
जो भी चल निकली है, वो बात कहां ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्ज़ सुबुक गुज़री थी
हिज़्र की शब है तो क्या सख़्त गरां ठहरी है
फ़ैज़ की नाज़ुक-मिज़ाजी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर शोर-ओ-गुल, दंगा-फ़साद, लड़ाई-झगड़ा, तू-तू मैं-मैं या और कोई तल्ख़ कलामी हो रही हो या किसी ने त्योरी ही चढ़ा रखी हो तो फ़ैज़ साहब की तबीयत ख़राब समझें। ऐसे में कुछ लिखना तो दूर सुनाने की सूरत भी पैदा नहीं होती थी। रावलपिंडी केस में जेल की सज़ा काट रहे एक और जनाब मेजर मुहम्मद इस्हाक़ कहते हैं -
“फ़ैज़ के असिस्टेंट या कह लीजिये के बियाज़ बरदारी (शायर के पीछे डायरी ले कर चलना) का काम मेरे सुपुर्द था। दूसरे रफ़ीक़ (साथी, दोस्त) जब हमें जुलूस में इस तरह चलता देखते तो इस बात का अंदाज़ा लगा लेते के आज फ़ैज़ साहब का कलाम सुन ने को मिलेगा और ख़ुशी की एक लहर सी अहाते में दौड़ जाती। एक वक़्त सरगोधा और लायलपुर की जेलों में ऐसा भी आया के काग़ज़, कलम, दवात, किताबें, अख़बार, ख़ुतूत, सब कुछ ममनूअ (वर्जित) हो गया। फ़ैज़ ने इस तरफ़ इशारा करते हुए लिखा भी है” -
माताए-लोहो-क़लम छिन गयी तो क्या ग़म है
कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने
ज़बाँ पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर-एक हलक-ए-ज़ंजीर में ज़बाँ मैंने
1962 में फ़ैज़ को लेनिन पीस अवॉर्ड से नवाज़ा गया। कहाँ तो पाकिस्तान के लिए ये फ़क्र की बात होती के पाकिस्तान के एक वाहिद शख़्स को ये ईनाम मिला था, उन्हें हिक़ारत की नज़र से देखा जाने लगा। फ़ैज़ का ऐसे हालात में रहना मुश्किल हो गया और वो क़रीबन दो बरस के लिए लन्दन चले गए। लेकिन मादरे वतन से कितने दिन दूर रह पाते, लाहौर की यादें उन्हें दिन-ब-दिन कचोटे जा थीं।
हम के ठहरे अजनबी इतने मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बादथे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद
आख़िरकार 1964 में फ़ैज़ वापिस पाकिस्तान आ गए लेकिन लाहौर नहीं कराची। यहाँ एक बहुत ही ख़स्ता हालत स्कूल में प्रिंसिपल की हैसियत में 1972 तक काम किया।
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है
1971 के आख़िर में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरपरस्ती में जब जम्हूरियत लौटी तो फ़ैज़ के लिए लाहौर और अदबी हल्क़ों के दरवाज़े भी खुल गए। फ़ैज़ ने इस दौरान सरकार की जानिब से तहज़ीब-ओ-तमदुन के लिए मुख़्तलिफ़ इदारों के साथ मिल कर काम किया। अमन-ओ-सुकून का ये दौर बहुत मुख़्तसर रहा और 1977 में जनरल ज़िया उल हक़ ने पाकिस्तान में मिलिट्री की हुक़ूमत क़ायम कर दी। फ़ैज़ के जिला वतनी का वक़्त फिर लौट आया और बेरूत चले गए जहाँ 1982 तक ‘लोटस’ नाम के रिसाले के लिए बतौर मुदीर काम किया।
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
यासिर अराफ़ात फ़ैज़ के चाहने वालों में से थे और एक करीबी दोस्त भी। 1982 में छिड़ी लेबनॉन की लड़ाई के चलते फ़ैज़ वापिस पाकिस्तान आ गए। इन दिनों उनकी सेहत बहुत ख़राब रही। 20 नवम्बर 1984 को ये अमन और तरक़्क़ी पसंद शख़्स सुपुर्दे-ख़ाक हो गया।
दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद
उनसे जो कहने गए थे “फ़ैज़” जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
साभार: https://medium.com/urdu-studio/
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