पहली बार वामपंथ हिन्दोस्तान में सबकी नज़रों पर चढा हुआ है। कारन चाहे जो भी हो संप्रंग से दोस्ती का मामला हो या नंदीग्राम का मसाला। वामपंथ एक बार फिर दुनिया को अपनी ओर खिंचा है। सब सकतें में हैं क्या होगा कहीं यह कुल्हाडी मारें का मसला न हो जाये। लेकिन हिन्दोस्तानी वामपंथ धीर वीर गंभीर है क्योंकि यह बिल्कुल नया केस भी नही है। ऐसी स्थिति कई बार आई थी और हर बार वामपंथ ने अपने को साबित किया है। इस बार भी यही हिन्दोस्तानी वामपंथ सफल हुआ तो लाल किले पर लाल निशान का सपना दूर न होगा। याद करे ९० के दशक कि भाजपा को। २ सीटों से २०० सीटों का सफर भी इसी तरह विवादास्पद और दिलचस्प था। अब ज़रूरत सिर्फ अपनी पहचान और अपने सही संदेश को उस अन्तिम आदमी तक पहुँचनी है जो वामपंथ का वोटर है और सर्वहारा है.
आज शैलेंद्र जी की पुण्यतिथि (14 दिसंबर 1966) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप सब के लिए उनकी बेटी अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार जी की खास बातचीत ~ "आवारा हूँ, आवारा हूँ ...गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ ...' की लोकप्रियता के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “हम दुबई में रहते थे। हमारे पड़ोस में तुर्कमेनिस्तान का एक परिवार रहता था। उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ ... आवारा हूँ ...और उसे रूसी भाषा में गाने लगे।" इस गाने की कामयाबी का एक और दिलचस्प उदाहरण अमला बताती हैं। “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड'।इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ इस गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है।" हालांकि इस गीत के लिए पहले-पहले राजकपूर ने मना कर दिया था। शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में - 'मैं, मेरा कवि और मेरे गीत' शीर्षक से लिखे आलेख में बताया - “आवारा की कहानी सुने ब...
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lolikneri havaqatsu