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शैलेंद्र को याद करते

आज शैलेंद्र जी की पुण्यतिथि (14 दिसंबर 1966) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप सब के लिए उनकी बेटी अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार जी की खास बातचीत ~

"आवारा हूँ, आवारा हूँ ...गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ ...' की लोकप्रियता के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “हम दुबई में रहते थे। हमारे पड़ोस में तुर्कमेनिस्तान का एक परिवार रहता था। उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ ... आवारा हूँ ...और उसे रूसी भाषा में गाने लगे।"

इस गाने की कामयाबी का एक और दिलचस्प उदाहरण अमला बताती हैं। “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड'।इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ इस गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है।"

हालांकि इस गीत के लिए पहले-पहले राजकपूर ने मना कर दिया था। शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में - 'मैं, मेरा कवि और मेरे गीत' शीर्षक से लिखे आलेख में बताया - “आवारा की कहानी सुने बिना, केवल नाम से प्रेरित होकर मैंने ये गीत लिखा था। मैंने जब सुनाया तो राजकपूर साहब ने गीत को अस्वीकार कर दिया। फ़िल्म पूरी बन गई तो उन्होंने मुझे फिर से गीत सुनाने को कहा और इसके बाद अब्बास साहब को गीत सुनाया। अब्बास साहब की राय हुई कि यह तो फ़िल्म का मुख्य गीत होना चाहिए।"

शैलेंद्र अपने जीवन के अनुभवों को ही कागज़ पर उतारते रहे। इस दौरान उन्होंने सिनेमाई मीटर की धुनों का भी ख़्याल रखा और आम लोगों के दर्द का भी। एक बार राजकपूर की टीम के संगीतकार शंकर-जयकिशन से उनका किसी बात पर मनमुटाव हो गया।

इस वाक़ये के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “कुछ अनबन हो गई थी और फिर शंकर-जयकिशन ने किसी दूसरे गीतकार को अनुबंधित भी कर लिया था। बाबा ने उन्हें एक नोट भेजा - 'छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल'. नोट पढ़ते ही अनबन ख़त्म हो गयी और ये नोट गीत में तब्दील हो गया। और आख़िर तक दोनों साथ रहे।"

शैलेंद्र का उनके समकालीन कितना सम्मान करते थे, इसका एक दूसरा उदाहरण 1963 में तब देखने को मिला जब साहिर लुधियानवी ने साल का फ़िल्म फेयर अवार्ड यह कह कर लेने से इंकार कर दिया था कि उनसे बेहतर गाना तो शैलेंद्र का लिखा बंदिनी का गीत - 'मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे' है।

शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर जब 'तीसरी कसम' फ़िल्म का निर्माण शुरू किया था, तब उनकी आर्थिक मुश्किलों का दौर शुरू हुआ। फ़िल्मी कारोबार से उनका वास्ता पहली बार पड़ा था, वे क़र्ज़ में डूब गए और फ़िल्म की नाकामी ने उन्हें बुरी तोड़ दिया। ये भी कहा जाता है कि इस फ़िल्म की नाकामी के चलते ही उनकी मृत्यु हो हुई। लेकिन अमला शैलेंद्र इससे इनकार करती हैं। अमला बताती हैं, “ये ठीक बात है कि फ़िल्म बनाने के दौरान काफ़ी पैसे लग गए थे। घर में पैसों की दिक्कत हो गई थी। लेकिन बाबा अपने जीवन में पैसों की परवाह कभी नहीं करते थे। उन्हें इस बात का फ़र्क़ नहीं पड़ा था कि फ़िल्म नाकाम हो गई क्योंकि उस वक़्त में वे सिनेमा में सबसे ज़्यादा पैसा पाने वाले लेखक थे। जो लोग सोचते हैं कि फ़िल्म के फ़्लाप होने और पैसों के नुक़सान के चलते शैलेंद्र की मौत हुई, वे ग़लत सोचते हैं।"

अमला यह ज़रूर बताती हैं कि इस फ़िल्म को बनाने के दौरान उनके मन को ठेस पहुंची थी। वे कहती हैं, “उन्हें धोखा देने वाले लोगों से चोट पहुंची थी, बाबा भावुक इंसान थे। इस फ़िल्म को बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला। इसमें हमारे नज़दीकी रिश्तेदार और उनके दोस्त तक शामिल थे। जान पहचान के दायरे में कोई बचा ही नहीं था जिसने बाबा को लूटा नहीं। नाम गिनवाना शुरू करूंगी तो सबके नाम लेने पड़ जाएंगे।"

ये बात दूसरी है कि 'तीसरी कसम' को बाद में कल्ट फ़िल्म माना गया। इस बेहतरीन निर्माण के लिए उन्हें राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। मशहूर निर्देशक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इसे सैलूलाइड पर लिखी कविता बताया था।

ज़्यादा शराब पीने के कारण लिवर सिरोसिस से शैलेंद्र का निधन 14 दिसंबर, 1966 को हुआ था। महज़ 43 साल की उम्र में वो इस दुनिया को छोड़ गए.

ये भी दिलचस्प संयोग है कि शैलेंद्र का निधन उसी दिन हुआ जिस दिन राजकपूर का जन्मदिन मनाया जाता है। राजकपूर ने अपने दोस्त के निधन के बाद कहा था, “मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण। कवि था ना, इस बात को ख़ूब समझता था।"

शैलेंद्र तो चले गए लेकिन भारतीय फ़िल्मों को दे गए करीब 800 गीत, जो हमेशा उनकी याद दिलाने के लिए मौजूद रहेंगे।

प्रदीप कुमार, बीबीसी संवाददाता

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