आज कार्यालय समाप्त होने के समय वरीय सहकर्मियों ने राय कि कल ईद है। चलना है ना 'J' भाई के घर। सब ने एक दूसरे के चेहरे देखे और ज़ुबान बोल उठी- हाँ, हाँ। क्यों नहीं। कितने बजे?
तभी एक आवाज़ गूंजी - हम क्यों जाएँ? क्या वह आता है, हमारे यहाँ होली पर? सन्नाटा छा गया। जैसे किसी ने ज़ोरदार तमाचा मरा हो। "हाँ, मैं कह रहा हूँ। क्यों जाएँ हम? सिर्फ खाने के लिए क्या? घर में मटन, सेवई नहीं बनती है? वो भी वृहस्पतिवार को?"
आवाज़ रॉब और हिम्मत से जवाब में- हम खाने थोड़े ही जाते हैं! गले मिलने और इत्र की खुशबु लेने जातें हैं। और यह दोनों हमारे घर में नहीं मिलता। जोरदार ठहाका।
आज शैलेंद्र जी की पुण्यतिथि (14 दिसंबर 1966) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप सब के लिए उनकी बेटी अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार जी की खास बातचीत ~ "आवारा हूँ, आवारा हूँ ...गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ ...' की लोकप्रियता के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “हम दुबई में रहते थे। हमारे पड़ोस में तुर्कमेनिस्तान का एक परिवार रहता था। उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ ... आवारा हूँ ...और उसे रूसी भाषा में गाने लगे।" इस गाने की कामयाबी का एक और दिलचस्प उदाहरण अमला बताती हैं। “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड'।इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ इस गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है।" हालांकि इस गीत के लिए पहले-पहले राजकपूर ने मना कर दिया था। शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में - 'मैं, मेरा कवि और मेरे गीत' शीर्षक से लिखे आलेख में बताया - “आवारा की कहानी सुने ब...
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