इप्टा के सांगठनिक दौर के बारे में सोचते हुए आज फिर से ब्लॉग लिख रहा हूँ जो अरसा पहले छूट गया था । अपने एक अजीज़ मित्र की बात करूँ तो एक बुरी आदत छुट गई थी; पर कहीं ना कहीं अपनी बात को बताने और उस पर प्रतिक्रिया प्राप्त करने की चाहत ने एक बार फिर से उँगलियों को कैफियत की तरफ मोड़ा । तो आज मैं कुछ कहना नहीं कुछ जानना और समझना चाह रहा हूँ; क्यूँकी जब मैंने होश संभाला तो अडवानी जी शिला पूजन और रथ यात्रा निकाल रहे थीं। स्कूल गया तो अयोध्या में बाबरी माजिद ढा दी गयी थी। और अब जब कुछ करना कुछ प्रतिक्रिया देना चाहता था तो गाँधी जी के देश गुजरात का एक 'बर्बर', 'आमानुष मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हज़ारों का इसलिए कतल करवा देता है कि वे मुसलमान हैं। और फिर हमारी महान न्याय व्यवस्था अपना महान निर्णय देती है कि आस्थाओं पर ध्यान दो। राम सखा असली रूप में आ चुके हैं और वे भी उस ज़मीं के टुकडे के हिस्सेदार हैं जैसे निर्मोही अखाड़ा और शिया वख्फ़ बोर्ड। साथ ही अपनी मुछों के नीचे से मुस्कुराते मोहन भागवत (अपने अजीज़ मित्र से उधार लिए शब्द जो वे बार बार दोहराते और सुनाते हैं) के जोश भरी आवाज़ कि यह ना किसी की जीत है और ना किसी की हार! हम न्याय का सम्मान करतें हैं। हम साथ हैं। पर अगले ही दिन आवाज़ बदल जाती है कि हम फैसले से संतुष्ट नहीं हैं और हम सर्वोच्चा न्यायालय जायेंगे। इतना ही नहीं सारे हिन्दुस्तान के मुहं से कहलवाया गय टीवी और चैनलों के बहाने की हिन्दुस्तान इस फैसले का सम्मान करता है। पर इन् चेहरों के पीछे एक धमक सी सुनाई देती हैं फासीवाद की धमक। हिंदुत्व के नाम पर फ़ासीवाद के क्रूरूर चेहरे की। इस धमक नी एक और धमकी तुरंत ही दे डाली अन्ना टीम के नाम पर। वह टीम जिसमे सर्फ़ एक्स्सल में सफाई होने की गारंटी देने वाली चित्रहार की कमार्शियाल गुडिया किरण बेदी थी, हिन्दुस्तान की सबसे शातिर और आलोक्तान्त्रिक शासन में विस्वास करने वाले अरविन्द केजरीवाल और झूट को सच, सच तो झूठ बनाने वाले शांति भूषण। घोषणा कर दी की सांसद भ्रष्ट और संसद ठीक। नेता चोर और जनता बिलकुल ठीक। पर सवाल यह कि खुद को सिविल सोसाइटी का अगुआ कहने वाले किस सिविल सोसाइटी वाले हिन्दुस्तान से आये हैं और हिन्दुस्तान के कौन कौन लोग अन सिविल सोसाइटी से संपर्क रखते हैं। बचपन से ही सुना है के अफसर, वकील और थानेदार सबसे पाजी और बेईमान होते हैं और आज देख रखा हूँ की वही सबको बेईमान कह रहे हैं।
तो यह सवाल उठता की हम क्या करें?? हमारा हथियार तो गाना और नाटक करना है। अपने उसी अजीज़ मित्र की बात कैन तो हमारा काम जनता का मन बनाना है। किन्तु किताबों में पढ़ा हैं की संस्कृती राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। तो हमारा रोल क्या होगा?
नवम्बर २०११ में इप्टा बिहार का राज्य सम्मलेन हैं और दिसम्बर २०११ में इप्टा राष्ट्रीय सम्मलेन भिलाई में हैं। इसके पूर्व हम कुछ सोचना चाहतें हैं आपसे कुछ सुनना चाहते हैं ताकी एक रास्ता बना सके सांस्कृतिक प्रतिरोध का। आगे २०१२ का चुनाव uttar pradesh और गुजरात में हैं और २०१४ में केंद्र का चुनाव हैं।
क्या हो हमारा सांस्कृतिक हस्तक्षेप?
आप बताएँ ..........................
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