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भारत विभाजन की अंतःकथा

#भारत_विभाजन_की_अन्तःकथा_जिससे_मोदीजी_अवगत_नहीं_हैं।

#प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के सयुंक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर दिये गये अपने भाषण में नागरिकता संशोधन बिल (CAA) के संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री द्वय पं.जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री तथा समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया के बयानों को कोड किया था।

उसी भाषण में उन्होंने प.नेहरू का नाम लिये बिना उन पर तंज कसते हुए यह कहा था कि 'किसी को प्रधानमंत्री बनना था, इसलिये एक लकीर खींच दी गयी और देश का विभाजन कर दिया गया।' प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से यह सोच कर कि उनकी इतिहास की समझ कितनी सतही है, सभी जानकारों को घोर आश्चर्य हुआ होगा। उन्होंने यह बात यदि किसी चुनावी सभा में कही होती तो उसे नजरअंदाज भी किया जा सकता था। लेकिन उन्होंने यह बात संसद में कही है, इसलिये इसकी समालोचना की जाना जरूरी है।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में डॉ. लोहिया को भी कोड किया था। उन्होंने यदि डॉ. लोहिया की ही भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखी गयी विश्लेषणात्मक किताब 'Guiltymen of India's Partition' जिसका हिंदी अनुवाद 'भारत विभाजन के अपराधी' है, पढ़ी होती तो सम्भवतः वे बंटवारे की दुर्घटना पर इतनी हल्की टिप्पणी करने से पहले कम से कम दस बार जरूर सोचते।

भारत विभाजन की अन्तःकथा पर चर्चा करने के लिये मौलाना आजाद की किताब 'India wins Freedom' का उल्लेख करना भी अत्यंत जरूरी है। डॉ. लोहिया ने इसी किताब की समीक्षा करते हुए ही पूरी किताब लिख दी थी। इस किताब को पढ़ने के बाद बंटवारे के सम्बन्ध में पटेल की भूमिका की अंदरूनी परते भी खुल जाती हैं।

मौलाना आजाद के अनुसार सरदार पटेल विभाजन के प्रस्ताव पर सहमत होने वाले पहले कांग्रेसी नेता थे। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि पटेल ने प्रस्ताव के समर्थन में वोट करने के लिये गांधी और नेहरू दोनों को मना लिया था। दिलचस्प बात यह है कि मौलाना आजाद ने इस प्रस्ताव पर वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था (शायद वे कार्यसमिति के सदस्यों की मंशा जान गये थे इसलिये कुछ अधिक ही निराश थे) जबकि खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया था। गौर करने लायक तथ्य यह भी है कि गांधी, नेहरू और पटेल के समर्थन के बावजूद कांग्रेस कार्यसमिति का प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) में सर्वसम्मति से पास नहीं हो सका था। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के 108 सदस्य विभाजन के विरोध में थे या तटस्थ रहे।

मौलाना आजाद ने 'इंडिया विंस फ्रीडम' में लिखा है कि आजादी और बंटवारे से ठीक पहले 26 अक्टूबर 1946 में जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसमें पं.नेहरू कार्यकारी प्रधानमंत्री की भूमिका में थे और पटेल के पास गृह और सूचना प्रसारण मंत्रालय था। वित्त मंत्रालय मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खान के पास था जिनसे पटेल के तीखे मतभेद हुए। विभाजन के प्रस्ताव पर पटेल की सहमति का एक बिंदु लियाकत अली खान से उनके मतभेदों को भी माना जाता है।

मौलाना आजाद ने लिखा है - 'सरदार पटेल गृह विभाग को रखने के लिये बहुत बेचैन थे। अब उन्होंने महसूस किया कि वित्त विभाग मुस्लिम लीग को देकर वह उनके हाथों में खेल रहे थे। जो भी प्रस्ताव वह रखते लियाकत अली या तो उसे रद्द कर देते या बदल देते। इस लगातार दखलंदाजी ने किसी भी कांग्रेसी मंत्री के लिये काम करना मुश्किल बना दिया। आंतरिक कलह सरकार के अंदर दिखने और बढ़ने लगी।' इस विषम परिस्थिति में सरदार पटेल को यह लगने लगा था कि मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चलाना सम्भव नहीं है।

बंटवारे पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की भूमिका को मौलाना आजाद की नजर से जानने के बाद अब हम आते हैं डॉ. लोहिया के विचारों पर। डॉ. लोहिया ने 'भारत विभाजन के अपराधी' की भूमिका में लिखा है -
"अंग्रेजो के पाप में सरदार पटेल सहकर्मी क्यों बने? इस प्रश्न का उत्तर मैं उनके सहयोगी श्री नेहरू के आचरण की जांच के जरिये सोच सकता हूं। श्री नेहरू अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली थे और यह भी कि उनके बारे में मुझे तथ्यों की जानकारी ज्यादा है। इस जांच की शुरुआत करने से पहले, मैं कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें बंटवारे की योजना स्वीकृत की गई। हम दो सोशलिस्ट श्री जयप्रकाश नारायण और मुझे इस बैठक में विशेष निमंत्रण पर बुलाया गया था। हम दोनों, महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खाँ को छोड़कर और कोई बंटवारे की योजना के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला।"

इस आलेख में अधिक विस्तार में न जाते हुए पुस्तक के सारांश के रूप में बंटवारे के उन कारणों का उल्लेख किया जाना उचित होगा जो डॉ. लोहिया की दृष्टि में बंटवारे के मूल कारण थे। डॉ. लोहिया ने बंटवारे के आठ मुख्य कारण बताए हैं : 1. ब्रिटिश कपट (अंग्रेज भारत छोड़ने से पहले बंटवारा कर भारत को आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमजोर बनाये रखना चाहते थे), 2. कांग्रेस नेतृत्व की वृद्धावस्था (गांधी, पटेल और नेहरू की उम्र में 10-10 साल का फर्क था और नेहरू को छोड़कर शेष दोनों नेता वृद्ध हो चुके थे। नेहरू वृद्ध नहीं हुए थे फिर भी वे 57 वर्ष के तो हो ही चुके थे), 3. हिन्दू-मुस्लिम दंगों की प्रत्यक्ष परिस्थिति (जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन की घोषणा के बाद संयुक्त में बंगाल में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गए थे और उनका व्यापक असर संयुक्त पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार में भी दिखाई दे रहा था), 4. जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव, 5. गांधीजी की अहिंसा, 6. मुस्लिम लीग की फूट नीति (मो.अली जिन्ना और मुस्लिम लीग पाकिस्तान से कम पर मानने को ही तैयार नहीं थे। गांधीजी ने बंटवारा रोकने का अंतिम प्रयास करते हुए जिन्ना को प्रधानमंत्री पर की पेशकश के साथ अपनी पसंद के मंत्रिमंडल का गठन तक करने का प्रस्ताव दे दिया था। इस प्रस्ताव को सुन कर कांग्रेसी खेमे में हलचल मच गयी थी), 7. आये हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और 8. हिन्दू अहंकार (सावरकर और हिन्दू महासभा मुसलमानों के साथ रहने को बिल्कुल तैयार नहीं थे। सावरकर ने तो पाकिस्तान के प्रस्ताव से भी पहले 1937 में 'दो राष्ट्र का सिद्धांत' प्रस्तूत कर दिया था। सावरकर का कहना था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग कौम हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकतीं)।

भारत विभाजन तथा सत्ता के हस्तांतरण पर कई किताबें लिखी गयी हैं और उनमें से कई गहन शौध के उपरांत लिखी गयी हैं। उनमें एक अन्य महत्वपूर्ण किताब है सरदार पटेल के बेहद करीबी और विश्वासपात्र रहे उनके प्रधान सचिव वीपी मेनन की किताब 'The Transfer of Power in India. इस किताब में मेनन ने लिखा है कि नेहरू ने विभाजन और सत्ता हस्तांतरण सम्बन्धी लार्ड माउंटबेटन के शुरुआती प्रस्ताव का बहुत तीखा विरोध किया था जो उन्होंने अपने शिमला प्रवास के दौरान नेहरू से साझा किया था। मेनन ने अपनी किताब में नेहरू के उस पत्र का जिक्र किया है जो उन्होंने माउंटबेटन को उनके प्रस्ताव के खिलाफ लिखा था।

हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने यदि ये सब किताबें पढ़ी होतीं तो वे संसद में देश के प्रथम प्रधानमंत्री और महान स्वतंत्रता सेनानी पं.जवाहरलाल नेहरू के बारे में इतनी हल्की और सतही बात कह कर अपने पद की गरिमा को कम नहीं करते। एक कहावत है कि कानून का डर उसे नहीं लगता है जिसे उसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं होती है। यह उक्ति हमारे प्रधानमंत्रीजी पर दूसरे संदर्भ में सटीक बैठती है कि किसी ने यदि कुछ पढ़ा ही न हो तो वह अपने मन से कुछ भी बोल सकता है और प्रधानमंत्रीजी को तो 'मन की बात' कहने में ही सदैव रुचि रहती है।
         --प्रवीण मल्होत्रा के सौजन्य से!  (  Vinod Kochar जी की फेसबुक पोस्ट )

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