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आखिर ये कौन से राम हैं

‘श्री रामचंद्र कृपालु भज मन' आज सब ओर रामनवमी की धूम है। मोहल्लों में राम भक्त हिन्दुओं के घरों पर राम ध्वजा फहरा रही है...  मुझे इन लहराते झंडों के बीच अपना बचपन याद आ रहा है।  रामनवमी मेरे परिवार के लिए एक घरेलू उत्सव रहा है। बचपन से लेकर सन 2000 और उसके कुछ और वर्षों तक रामनवमी आती थी। हम सब मिलकर पूजा करते। आंगन में हनुमानी ध्वजा फहरायी जाती थी। हम धनिया और मीठा मिले प्रसाद को खा कर खुश हो जाते थे। श्री राम की याद और मीठा प्रसाद- ऐसा ही रहा, हमारा रामनवमी। उस समय भी अख़बार और दुकानों में रामनवमी की थोड़ी धूम होती थी। कुम्हरार गाॅंव से हाथी, घोड़ों के साथ हनुमान ध्वजा निकलती थी। यहाँ राम की तस्वीर भी होती थी। लेकिन तस्वीर में सीता, हनुमान, लक्ष्मण, भरत और पूरी अयोध्या शामिल होती थी। किसी तस्वीर में जामवंत, सुग्रीव और विभीषण भी दिख जाते थें। सबके राम का राजदरबार होता। वे सबको आश्वस्त करते- हम हैं।  महेंद्रू में महावीर मंदिर के हनुमान जी को सजाया सँवारा जाता था। कभी दोपहर या कभी देर शाम पूजा होती थी। हम बाल टोली की नज़र तो ब्राउन कागज के दोने में रखे दो लड्डुओं पर होती थ...

शैलेंद्र को याद करते

आज शैलेंद्र जी की पुण्यतिथि (14 दिसंबर 1966) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप सब के लिए उनकी बेटी अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार जी की खास बातचीत ~ "आवारा हूँ, आवारा हूँ ...गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ ...' की लोकप्रियता के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “हम दुबई में रहते थे। हमारे पड़ोस में तुर्कमेनिस्तान का एक परिवार रहता था। उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ ... आवारा हूँ ...और उसे रूसी भाषा में गाने लगे।" इस गाने की कामयाबी का एक और दिलचस्प उदाहरण अमला बताती हैं। “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड'।इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ इस गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है।" हालांकि इस गीत के लिए पहले-पहले राजकपूर ने मना कर दिया था। शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में - 'मैं, मेरा कवि और मेरे गीत' शीर्षक से लिखे आलेख में बताया - “आवारा की कहानी सुने ब...

क्या यह कला कर्म के अंत की शुरूआत है?

 https://youtu.be/I6ShaTlyzZQ यह पोस्ट पढ़ने के पहले ऊपर लिखे यूट्यूब वीडियो को ज़रूर देखें। कला कर्म के अनगिनत माध्यम हैं। इंटरनेट की आभासी दुनिया के आने के बाद यह लगा था कि कला कर्म को नए पंख मिलेंगे। देखने, सुनने और साझा करने का दायरा बढ़ेगा, लेकिन सच्चाई कुछ और ही हमारे सामने है। आज तक किसी कला कर्म ने लोगों को बांटा नहीं, बल्कि ऑडिटोरियम, मैदान, कैनवास, साउंड सिस्टम्स के दायरे में लोगों को जोड़ा ही है।  दुनिया का हरेक art form एक साथ बैठने, एक ही विषय पर संग हंसने, रोने और सोचने के लिए जोड़ते हैं। लेकिन यही कला कर्म जब इंटरनेट के माध्यम से हमारे लैपटॉप, मोबाईल फोन में आया तो हम बंट गए। जो अच्छा नहीं लगा उस पर गालियां देने लगें। धमकी तक दे डाली। दूसरे ओर से बचाव के मसीहा बनाने के लिए गाली देने वाले को कोसने लगे। कला कर्म का स्थान लड़ाई और बांटने का अड्डा बन गया। इसमें कला कहां गई पता ही नहीं चल रहा है। मुन्नवर फारूकी के इस वीडियो को देखते हुए ऐसा ही लगा। आप भी चर्चा में शामिल हों। दस साल से अधिक इप्टा के साथ रंगकर्म करने के दौरान कई ऐसे मौके आएं जहां विचार, प्रस्तुतिकरण की...

ऐ रहबर मुल्कों क़ौम बता

कोरोना वायरस बहुत पुराना नहीं है और इतना भी नया नहीं कि हम रोज़ाना हजारों लाश गिनते रहें और श्मशान, कब्रिस्तान छोटे पड़ते रहें। सालों से विकास के नए प्रतिमान गढ़ते हिंदुस्तान का मैं भी साक्षी हूं। रोज शाम (प्रायः रात को) दफ्तर से लौटते हुए गौरव महसूस किया करता कि मैं बिहार के लोगों के लिए काम कर रहा हूं। बेली रोड की चौड़ी सड़कें, अधबना लोहिया चक्र, सुंदर सा बिहार संग्रहालय, गांधी मैदान के कोने में ज्ञान भवन, पुल पर तेज रफ़्तार और बुद्ध स्मृति पार्क नए बनते बिहार के गर्व को प्रोत्साहित करते हैं । एक दशक से भी अधिक समय से बिहार सरकार के अलग अलग विभागों के दफ्तरों में काम करते हुए ना जाने कितने रंग बिरंगे किताबें, पोस्टर, पर्चे बनाएं। हर साल बिहार दिवस समारोह को 26 जनवरी और 15 अगस्त से ज्यादा उल्लास और उत्साह से मनाया, क्योंकि इसमें अपना होने के भाव था। क्योंकि जब होश संभाला, घर के दरवाजे के बाहर निकल कर देखना शुरू किया तो सब कुछ अशांत मिला। पगड़ी बांधे और कृपाण धारी आतंकवादी लगते थें। महेंद्रू से गुरुद्वारा ऐसा दूर भी नहीं था लेकिन लंगर छकने, हलवा पाने में अजीब सा डर लगता था। इंदिरा गांध...

गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन

✍🏽 कात्‍यायनी 🖥 http://ahwanmag.com/archives/6235 _____________________ ‘जनसत्‍ता’ के सम्‍पादकीय पृष्‍ठ पर काफी पहले सुधांशु रंजन ने ‘महात्‍मा गाँधी बनाम चर्चिल’लेख में गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोगों का प्रसंग उठाया था। लेखक के अनुसार, आम लोगों की दृष्टि में विवादास्‍पदता के बावजूद, ‘ गाँधी का यह प्रयोग नायाब था, जिसे सामान्‍य मस्तिष्‍क नहीं समझ सकता’  और सत्‍य का ऐसा टुकड़ा उनके पास था जिसने उन्‍हें इस ऊँचाई पर पहुँचा दिया।’ बेशक इतिहास का कोई भी जिम्‍मेदार अध्‍येता गाँधी के ब्रह्मचर्य-प्रयोगों पर उस तरह की सनसनीखेज, चटखारेदार चर्चाओं में कोई दिलचस्‍पी नहीं लेगा, जैसी वेद मेहता से लेकर दयाशंकर शुक्‍ल ‘सागर’ आ‍‍दि लेखक अपनी पुस्‍तकों में करते रहे हैं। लेकिन किसी इतिहास-पुरुष के दृष्टिकोण में किसी भी प्रश्‍न पर य‍दि कोई अवैज्ञानिकता या कूपमण्‍डूकता होगी, तो इतिहास और समाज के गम्‍भीर अध्‍येता निश्‍चय ही उसकी आलोचना करेंगे। यहाँ प्रश्‍न यह है ही नहीं कि गाँधी के ब्रह्मचर्य-प्रयोगों के पीछे ब्रह्मचर्य की शक्ति और न केवल व्‍यक्ति बल्कि पूरे समाज पर पड़ने वाले उसके सकारात्‍मक प्रभाव पर ग...

भारत विभाजन की अंतःकथा

#भारत_विभाजन_की_अन्तःकथा_जिससे_मोदीजी_अवगत_नहीं_हैं। #प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के सयुंक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर दिये गये अपने भाषण में नागरिकता संशोधन बिल (CAA) के संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री द्वय पं.जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री तथा समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया के बयानों को कोड किया था। उसी भाषण में उन्होंने प.नेहरू का नाम लिये बिना उन पर तंज कसते हुए यह कहा था कि 'किसी को प्रधानमंत्री बनना था, इसलिये एक लकीर खींच दी गयी और देश का विभाजन कर दिया गया।' प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से यह सोच कर कि उनकी इतिहास की समझ कितनी सतही है, सभी जानकारों को घोर आश्चर्य हुआ होगा। उन्होंने यह बात यदि किसी चुनावी सभा में कही होती तो उसे नजरअंदाज भी किया जा सकता था। लेकिन उन्होंने यह बात संसद में कही है, इसलिये इसकी समालोचना की जाना जरूरी है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में डॉ. लोहिया को भी कोड किया था। उन्होंने यदि डॉ. लोहिया की ही भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखी गयी विश्लेषणात्मक किताब 'Guiltymen of India's Partition' जि...

जश्ने फ़ैज़: लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

मेरा पहला ख़्वाब एक क्रिकेट खिलाडी बनना था, दूसरा नक़्क़ाद या रिसर्च स्कॉलर, तीसरे-चौथे का यक़ीन से नहीं कह सकता। अमृतसर में गुज़रा लेक्चरर-शिप का वक़्त मेरे सब से ख़ुशगवार और यादगार दिनों में से है। मैंने दाग़, मीर और ग़ालिब को भी पढ़ा और में ये तस्लीम करना चाहता हूँ के ग़ालिब मेरी समझ से परे ही रहे, इसका ये मतलब नहीं के दाग़ और मीर को मैं पूरी तरह समझ पाया, लेकिन इन शायरों ने मेरे ज़हन पर अमिट छाप छोड़ी।” एक ऐसा हासिल-ऐ-कलाम शख़्स जिस की ज़िन्दगी का सफ़र एक लंबी सियाह रात के बाद दूसरी भयानक बे-पयाँ काली रात में जा ठहरा। एक ऐसी ज़िंदा-दिल, लर्ज़ा-अंगेज़ आवाज़ जो हर कसो नाकस (हर एक) के कानों में आज़ान की तरह गूंजती तो रही लेकिन नमाज़ को हासिल न हुई। एक ऐसा ज़हन, जिसकी फ़िक्र और दूरअंदेशी का हर दौर काईल रहा, जिसकी ऐलानिया दबंगई न ज़िंदाँ में दफ़्न हुई न बाहर ख़ास-ओ-आम के दरम्यान। हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है (लोह-ए-अज़ल — सनातन पन्ना) जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (कोह-ए-गरां — घने पहाड़) रुई की तरह उड़ जाएँगे हम महक़ूमों के पाँव तले (महक़ूम...