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सज्जाद ज़हीर की याद

ग़ुलाम हिंदुस्तान के एक रईस ख़ानदान में पैदा होना उनकी च्वायस नहीं थी। जब च्वायस करने लायक़ हुए तो चुनी उन्होंने आज़ादी की लड़ाई और पैदा किया उसमें सबकुछ होम कर देने का जज़्बा। समझ और बढ़ी और इस आज़ादी की परिभाषा में शामिल हुआ इंसान को हर तरह के शोषण से मुक्त करने का सपना। "अंगारे" में शामिल कहानियाँ हों कि "पिघलता नीलम" की नज़्में, उस जज़्बे का आईना हैं और प्रलेसं का इतिहास "रौशनाई का सफ़र" तो एक ज़िंदा दस्तावेज़ है उस रौशन वक़्त का।

क़लम को अपना हथियार बनाने वाले सज्जाद साहब ने अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्नेफ़ीन (प्रगतिशील लेखक संघ) की जो बुनियाद डाली वह इसी लड़ाई का हिस्सा थी और वह इसे बुलन्दी तक ले गए। 

कम्युनिस्ट पार्टी के इस पूरावक़्ती कार्यकर्ता को जब आज़ादी के बाद पाकिस्तान जाकर पार्टी बनाने का हुक्म दिया गया तो बिना किसी हील हुज्जत के तीन मासूम बेटियों और रज़िया जी को छोड़कर वहाँ चले गए जो कल तक अपना ही मुल्क था। लेकिन जब पराया हुआ वह तो ऐसा कि कॉन्सपिरेसी केस में फाँसी के फंदे के क़रीब पहुँच गए। दुनिया भर के लेखकों के हस्तक्षेप से आज़ाद हुए तो उनकी कोई नागरिकता ही न बची थी। ख़ैर वह नेहरू का वक़्त था, अदीबों की इज़्ज़त थी तो हिंदुस्तान लौट सके अपने परिवार के पास। लौटने के बाद फिर लग गए वह अपने मोर्चे पर। देश भर के ही नहीं एशिया अफ्रीका और दुनिया भर के लेखकों को एक मंच पर लाने की मुहिम में। इंटरनेशल राइटर तो बहुत हैं हिंदुस्तान में लेकिन इंटरनेशन राइटर्स लीडर शायद वह अकेले थे।

आज जन्मदिन पर बाबा ए हिंदुस्तानी तरक्कीपसंद तहरीक, अपने साथियों के बन्ने भाई कॉमरेड सज्जाद ज़हीर को लाल सलाम।

इंक़लाब ज़िन्दाबाद...
नूर ज़हीर की  क़लम से।

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