सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अँधेरे में सिमटा हिंदी रंगमंच

एक ज़माना था की पटना में लोग टिकेट कटवा कर नाटक देखा काटें थे और लोगों को अच्छे नाटकों का इंतज़ार रहता था। यह बात ज्यादा पुराणी नहीं है और ना ही ख्याल पुराने हुए हैं। सिर्फ नाटक करैं और देखने वालों के विचार बदल से गए हैं। वोह ज़माना था कमिटमेंट का, विचारों का, आस्थाव का। एक तरफ धूर मार्क्सवादी कोना था तो दूसरी तरफ सो तथा कथित संस्कृतिकर्मी थें। नाटकों की नायक जनता होती थी और नाटक आम जन के लिए शिद्दत के साथ होते थें। पूरी तैयारी से सारे आग्रह-पूर्वाग्रह को छोड़ खुले दिल नाटक खेले और देखे जाते थें। आज वक़्त के साथ सोओच भी बदली है। एक नयी सोओच और एक नया विचार अभी देखने को मिल रहा है - चीनी फास्ट फ़ूड की तरह। देखता तो सब बहुत अच्छा और आकर्षक है और कुँलिटी कुछ भी नहीं। परिणाम की दर्शक और रंगकर्मी दोनों दूर होते जा रहें है। एक अंधरे की तरफ।