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इप्टा @ 73

आने वाली 25 मई को इप्टा 73 साल का हो जाएगा। 1943 में मुम्बई ने देश की सांस्कृतिक तक़दीर लिखी और गाना, बजाना, नाचना और नाटक करना एक सामजिक दायित्व बना दिया। मनोरंजन के आगे फनकारी से भी काफी आगे एक नया आयाम उभर कर सामने आया। नाच, गाना और नाटक जनता की आवाज़ बनें। पूरा हिंदुस्तान बंगाल की भूख से बिलबिलाते हुए चीख उठा, "भूख है बंगाल" । इक़बाल का क़ौमी तराना "सारे जहाँ से अच्छा", साहिर का "ऐ रहबर मुल्कों" और कैफ़ी का "सोमनाथ', दूसरा बनवास" इप्टा के सात से ज्यादा दशक के जन नाट्य आंदोलन के कीर्तिमान हैँ। अब सवाल यह है कि 73 सालों में इप्टा की विरासत आज के समय में कितना मौजूं है? आज का इप्टा देश के सांस्कृतिक विकास के लिए क्या कर रहा है? 16 मई 2014 के बाद हिन्दुस्तान के सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों जो बदलाव आये हैं, उसे इप्टा कैसे देखता समझता है और इसकी अभिव्यक्ति कैसे कर पा रहा है? 16 मई 2014 के बाद का जन नाट्य और जन संगीत का थीम क्या है? एक पूरी समझ के साथ एक-एक कर कई प्रतीक बदले जा रहे हैं, ऐसी चुनौती को इप्टा कैसे देखता और क्या सोचता है?