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शैलेंद्र को याद करते

आज शैलेंद्र जी की पुण्यतिथि (14 दिसंबर 1966) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आप सब के लिए उनकी बेटी अमला शैलेंद्र से प्रदीप कुमार जी की खास बातचीत ~ "आवारा हूँ, आवारा हूँ ...गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ ...' की लोकप्रियता के बारे में अमला शैलेंद्र बताती हैं, “हम दुबई में रहते थे। हमारे पड़ोस में तुर्कमेनिस्तान का एक परिवार रहता था। उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ ... आवारा हूँ ...और उसे रूसी भाषा में गाने लगे।" इस गाने की कामयाबी का एक और दिलचस्प उदाहरण अमला बताती हैं। “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड'।इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ इस गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है।" हालांकि इस गीत के लिए पहले-पहले राजकपूर ने मना कर दिया था। शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में - 'मैं, मेरा कवि और मेरे गीत' शीर्षक से लिखे आलेख में बताया - “आवारा की कहानी सुने ब

क्या यह कला कर्म के अंत की शुरूआत है?

 https://youtu.be/I6ShaTlyzZQ यह पोस्ट पढ़ने के पहले ऊपर लिखे यूट्यूब वीडियो को ज़रूर देखें। कला कर्म के अनगिनत माध्यम हैं। इंटरनेट की आभासी दुनिया के आने के बाद यह लगा था कि कला कर्म को नए पंख मिलेंगे। देखने, सुनने और साझा करने का दायरा बढ़ेगा, लेकिन सच्चाई कुछ और ही हमारे सामने है। आज तक किसी कला कर्म ने लोगों को बांटा नहीं, बल्कि ऑडिटोरियम, मैदान, कैनवास, साउंड सिस्टम्स के दायरे में लोगों को जोड़ा ही है।  दुनिया का हरेक art form एक साथ बैठने, एक ही विषय पर संग हंसने, रोने और सोचने के लिए जोड़ते हैं। लेकिन यही कला कर्म जब इंटरनेट के माध्यम से हमारे लैपटॉप, मोबाईल फोन में आया तो हम बंट गए। जो अच्छा नहीं लगा उस पर गालियां देने लगें। धमकी तक दे डाली। दूसरे ओर से बचाव के मसीहा बनाने के लिए गाली देने वाले को कोसने लगे। कला कर्म का स्थान लड़ाई और बांटने का अड्डा बन गया। इसमें कला कहां गई पता ही नहीं चल रहा है। मुन्नवर फारूकी के इस वीडियो को देखते हुए ऐसा ही लगा। आप भी चर्चा में शामिल हों। दस साल से अधिक इप्टा के साथ रंगकर्म करने के दौरान कई ऐसे मौके आएं जहां विचार, प्रस्तुतिकरण की असहमति ज

ऐ रहबर मुल्कों क़ौम बता

कोरोना वायरस बहुत पुराना नहीं है और इतना भी नया नहीं कि हम रोज़ाना हजारों लाश गिनते रहें और श्मशान, कब्रिस्तान छोटे पड़ते रहें। सालों से विकास के नए प्रतिमान गढ़ते हिंदुस्तान का मैं भी साक्षी हूं। रोज शाम (प्रायः रात को) दफ्तर से लौटते हुए गौरव महसूस किया करता कि मैं बिहार के लोगों के लिए काम कर रहा हूं। बेली रोड की चौड़ी सड़कें, अधबना लोहिया चक्र, सुंदर सा बिहार संग्रहालय, गांधी मैदान के कोने में ज्ञान भवन, पुल पर तेज रफ़्तार और बुद्ध स्मृति पार्क नए बनते बिहार के गर्व को प्रोत्साहित करते हैं । एक दशक से भी अधिक समय से बिहार सरकार के अलग अलग विभागों के दफ्तरों में काम करते हुए ना जाने कितने रंग बिरंगे किताबें, पोस्टर, पर्चे बनाएं। हर साल बिहार दिवस समारोह को 26 जनवरी और 15 अगस्त से ज्यादा उल्लास और उत्साह से मनाया, क्योंकि इसमें अपना होने के भाव था। क्योंकि जब होश संभाला, घर के दरवाजे के बाहर निकल कर देखना शुरू किया तो सब कुछ अशांत मिला। पगड़ी बांधे और कृपाण धारी आतंकवादी लगते थें। महेंद्रू से गुरुद्वारा ऐसा दूर भी नहीं था लेकिन लंगर छकने, हलवा पाने में अजीब सा डर लगता था। इंदिरा गांध