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संस्कृति के सवाल पर ऐसी चुप्पी क्यों?

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि दुनिया की सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सरकार जहां एक तरफ प्रगति और विकास के ढेरों आंकड़े प्रस्तुत करती है, वहीं संस्कृति के सवाल पर ऐसी चुप्पी क्यों साध लेती है मानों यह सवाल ही न हो। परन्तु इस संदर्भ में ऐसे अन्तर्विरोध भी देखने को मिलते हैं कि जहां राजसत्ता और राजनीतिक ताकतों को ‘संस्कृतिकर्म’ चुनौती दिखता है (वहां तथाकथित तौर पर देश की ‘एकता-अखण्डता’ खतरे में पड़ जाती है/सत्ता पर हमला हो जाता है/जनभावना खतरे में पड़ जाती है)। जब संस्कृतिकर्म और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के दमन की बात आती है, तो उससे जरा भी पीछे खिसकती नजर नहीं आती है। आज़ादी के समय से लेकर अब तक ऐसे ढेरों उदाहरण हमारे सामने हैं। वैसे सरकार बीच-बीच में ऐसे कार्य भी करती रहती है जिससे अगर प्रतिपक्ष सवाल उठाये तो उसका छद्म जवाब दिया जा सकता है। यदि कोई सवाल करे कि ‘सरकार संस्कृति के विकास और कलाकारों के कल्याण के लिए क्या कर रही है?’ तो जवाब आयेगा कि ‘इसके लिए एक समर्पित विभाग है, जो कला-संस्कृति के दायित्वों का निवर्हन कर रहा है। संस्कृति के विकास के लिए संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, आदि सरकारी/अर्द्धसरकारी संस्थाओं का गठन किया गया है’। परन्तु सवाल यह है कि क्या वे विभाग और अकादमियां महज औपचारिकता पूरी करने के लिए हैं? सरकार को इस बात की चिंता नहीं रहती है कि अनुदान दिये जाने वाले कार्यक्रम का स्तर कैसा है, लेकिन वे इस बात के लिए जरूर चौकस रहते हैं कि इसका प्रयोग कहीं व्यवस्था के विरोध में तो नहीं हो रहा है। और इस मामले में सरकार बहुत हद तक सफल रही है। 
सौजन्य:http://www.vervemagazine.in

ऐसा एक सुस्पष्ट नीति के ही अभाव में ही होता हैं, क्योंकि पोषक ने यह तय ही नहीं किया है कि किसी भी विभाग/संस्थान की स्थापना के पीछे मकसद क्या है और उसके प्रति कौन सा संरक्षणवादी, संवर्द्धनवादी दर्शन/विचार काम कर रहा है। आज साठ साल बाद भी जो राजनीतिक संवेदनशीलता उद्योग, पूँजी निवेश, कृषि, स्वास्थ्य, पोषण, महिला, बच्चों के संदर्भ में दिखती है, वह संस्कृति को लेकर क्यों नहीं है? मध्यममार्गी-सुधारवादी, दक्षिण व वामपंथी विचार रखने वाली पार्टियों के लिए संस्कृति महज एक भीड़ जुटाने का टूल है। दुनिया का ऐतिहासिक परिदृश्य यह पूरी तरह से साफ करता है कि कोई भी जन आन्दोलन तब तक पूर्ण नहीं हुआ है जब तक वहां व्यापक स्तर पर सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं चलाया गया। वर्तमान में राजनीति अराजकता संस्कृति के प्रति इसी राजनीतिक असंवेदनशीलता का ही परिणाम दिखती है।

उक्त संदर्भ में भारत के संविधान की प्रस्तावना इस अंश को एक बार फिर से दोहराने की आवश्यकता महसूस होती है, जिसमें यह कहा गया है कि ‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीति न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसरों की समता प्राप्त करने के लिए उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने के लिए, बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर....’। अर्थात् हमारा संविधान एक ऐसी संस्कृति की गांरटी देता है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीति न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, सहिष्णुता और बंधुता प्रदान करता है। 

सांस्कृतिक दृष्टि से बिहार एक प्रकार से भारत का लघु संस्करण है। भारत की तरह ही बिहार में संस्कृति की एक सुदीर्घ परम्परा और समृद्ध ऐतिहासिक विरासत रही है, और उसी प्रकार विविधता में एकता के तत्व विद्यमान है। यदि एक ओर शास्त्रीय परंपरा है तो दूसरी तरफ अनेक लोक जीवंत धाराऐं भी प्रवाहमान है। यदि एक ओर अपनी प्रादेशिक सांस्कृतिक विशिष्टता नजर आती है, तो दूसरी ओर पड़ोसी देश-प्रदेश से इसके व्यापक आदान-प्रदान और गहरे अंतर्संबंध भी रहे है। 

जबकि संस्कृति का निर्माण और विकास समाज में उसकी सृजनशीलता सी होती है, राज्य से स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वह इसके संरक्षण, सवंर्धन एवं प्रोत्साहन के लिए अनुकूल वातावरण और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए। यह समझना जरूरी है कि संस्कृति एक व्यापक विषय है जिसमें कला की विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, आचार-विचार, जीवन मूल्य, शिक्षा-ज्ञान-विज्ञान, इत्यादि सारी बातें समाहित हंैं। इनमें कई बातों से राज्य या सरकार का लेना-देना नहीं है, कई बातों में बगैर नियंत्रण के सरकार के सहयोग व समर्थन की अपेक्षा होगी और कई जगह सरकारी पहल जरूरी है। लेकिन अक्सर जहाँ प्रत्यक्ष सरकारी सहयोग या पहल चाहिए भी, वहाँ वह महज एक खास विभाग भर का दायित्व नहीं हो सकता, बल्कि कई विभागों का साझा कार्यक्रम या पहल का होगा।

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