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ऐ रहबर मुल्कों क़ौम बता

कोरोना वायरस बहुत पुराना नहीं है और इतना भी नया नहीं कि हम रोज़ाना हजारों लाश गिनते रहें और श्मशान, कब्रिस्तान छोटे पड़ते रहें।

सालों से विकास के नए प्रतिमान गढ़ते हिंदुस्तान का मैं भी साक्षी हूं। रोज शाम (प्रायः रात को) दफ्तर से लौटते हुए गौरव महसूस किया करता कि मैं बिहार के लोगों के लिए काम कर रहा हूं। बेली रोड की चौड़ी सड़कें, अधबना लोहिया चक्र, सुंदर सा बिहार संग्रहालय, गांधी मैदान के कोने में ज्ञान भवन, पुल पर तेज रफ़्तार और बुद्ध स्मृति पार्क नए बनते बिहार के गर्व को प्रोत्साहित करते हैं

एक दशक से भी अधिक समय से बिहार सरकार के अलग अलग विभागों के दफ्तरों में काम करते हुए ना जाने कितने रंग बिरंगे किताबें, पोस्टर, पर्चे बनाएं। हर साल बिहार दिवस समारोह को 26 जनवरी और 15 अगस्त से ज्यादा उल्लास और उत्साह से मनाया, क्योंकि इसमें अपना होने के भाव था।

क्योंकि जब होश संभाला, घर के दरवाजे के बाहर निकल कर देखना शुरू किया तो सब कुछ अशांत मिला। पगड़ी बांधे और कृपाण धारी आतंकवादी लगते थें। महेंद्रू से गुरुद्वारा ऐसा दूर भी नहीं था लेकिन लंगर छकने, हलवा पाने में अजीब सा डर लगता था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगे और लूट पाट ने एक ऐसा डर दिया जो रात में रोज आता था।

स्कूल शुरू हुआ तो जाति की बात शुरू हो गई। आरक्षण का विरोध और समर्थन चलने लगा। सड़क बंद, स्कूल बंद। आग, नारे और गोली। पुलिस की लाठी और मौत का खौफ। स्कूल पहुंचते ही सब दिख गया। फिर ईट की लड़ाई। अरे नहीं "शिला पूजन" और फिर पटना सिटी के दंगे। कर्फ्यू। गोली बम की आवाज। नफरत के बोल और हर लम्हा मौत का खौफ। यह मस्जिद तोड़े जाने तक जारी रहा। स्कूल खुलते रहे और बंद भी रहे। उम्र बढ़ती रही, कक्षाओं की तरह। मैट्रिक और इंटर में तो जातीय नरसंहार का रूप समझ में आने लगा था। इप्टा और बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के साथ पूरे बिहार का दौरा हुआ। जातीय नरसंहार का खौफ और मौत का तांडव एक बार फिर से सामने था।

अब तक तो यही समझ में आया शायद यही मेरा देश, मेरा बिहार है। रोज सुलगता, धधकता बिहार। अखबार के पहले पन्नों पर मरने मारने की खबरों के साथ, यह है मेरा बिहार। सब ऐसा ही था। स्नातक का विद्यार्थी कब स्नातकोत्तर हो गया उसे यह तो पता नहीं चला।

लेकिन बिहार बदलने लगा था। जाति की बात करने पर जंगली और रोड, पुल, बिजली की बात करने पर विकासशील माना जाने लगा था। यह सवाल सीधे पूछ लिया जाता कि सामाजिक न्याय पा कर भी क्या कर लिया? अब जमाना प्रेमचंद के सवा सेर "सवा सेर गेंहू" का नहीं श्रीकांत के "मैं बिहार हूं" का है।

मेरे लिए तो यह सब सपने सा था। अब अख़बार में दहशत नहीं विकास की बुलबुल गीत गाती थीं। स्वयं सहायता समूहों की दीदियां सामाजिक और आर्थिक विकास के गीत गाती थीं। बच्चों का संरक्षण सबसे बड़ा मुद्दा था। गांव में शौचालय और घर तक नल का जल ही विकास का अंतिम सोपान था।

लेकिन आज सब कुछ एक मजाक, धोखा लग रहा है। आज मालिक हो या नौकर, अमीर या गरीब, ब्राह्मण या मेहतर, सब मर रहे हैं। पैसे की कमी से नहीं, भूख से नहीं, इलाज की कमी से मर रहे हैं। और बाकि सब स्तब्ध हैं। होश उड़ गए हैं। किससे पूछें? पूछें तो क्या पूछें? 

पिछले 15 साल में PMCH क्यों नहीं बना? 

बिहार संग्रहालय और इंदिरा गांधी हृदय रोग संस्थान दोनों के भवन तो एक साथ बनने शुरू हुए थें, लेकिन एशिया स्तर का हृदय संस्थान अब तक क्यों नहीं बना? 

PMCH 1670 बेड ज्यादा क्यों नहीं हो पाया? 

शिक्षक बिना इंटरव्यू के, बिना परीक्षा के स्कूलों में पढ़ान लगें, लेकिन डॉक्टर, नर्स, पर मेडिकल स्टॉफ नहीं आ पाएं क्यों? 

हम पोलियो उन्मूलन अभियान के पीले बैनर में खुद खो गए।

स्वास्थ्य व्यवस्था के स्वस्थ होने का पता ही नहीं कर पाएं। अब क्या करें? 

चिताएं सजी है। राम राज्य मौन है। बैठक, बुलेटिन और वाक युद्ध जारी है। मौत का कोहराम देश, राज्य, पड़ोस, रिश्तेदार से होता हुआ घर में दस्तक दे रहा है।

हस्तिनापुर मौन है। मगध स्तब्ध है। लेकिन दोनों राजमहल आपदा को अवसर में बदलने को तत्पर हैं।

पर सवाल है पूछे किससे? उनसे जिन्हे चुना है? उनसे जिनको हम टैक्स देते हैं? उनसे जो देश के क्रीम ब्रेन कहलाते हैं। उनसे जो हमारे अधिकारों के मंदिर की न्यायमूर्ति हैं? किनसे पूछें? सबने तो कह ही दिया सतर्कता ही बचाव है। बस उनकी जिम्मेवारी ख़त्म और हमारी शुरू।

आपने स्वास्थ्य बीमा करवा तब भी कोई फायदा नहीं। आप अलग कर दिए जाएंगे। आपके पास पैसा है तो भी ईलाज नहीं क्योंकि बेड ही नहीं हैं। पर जमीन तो है! पर डॉक्टर, नर्स, पारा मेडिकल नहीं हैं। यहां तक कि दवा और ऑक्सीजन तक नहीं है। सरकार व्यवस्था कर रही ही। अवसर मिला है। शीघ्र ही ऑक्सीजन आने लगेगा। वैक्सीन लगेगी और सभी के अंदर प्रतिरोधक क्षमता बन जाएगी। कोरोना तो होगा पर नुकसान नहीं पहुंचा पाएगा, लेकिन उनका क्या जो कल मरे। आज मरें और फिर कल मारे जाएंगे?

जवाब तो देना ही होगा। नजरें भी मिलानी होगी। 

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