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रंग-घर की दृष्टि से विपन्न छत्तीसगढ़: राजकमल नायक

छत्तीसगढ़ कला दृष्टि से संपन्न है परंतु रंग-घर की दृष्टि से विपन्न। शर्मनाक, हास्यास्पद, आश्चर्यजनक, अफसोसजनक तथा धिक्कारने योग्य बात है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर मं रंगमंच के लिए सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह नहीं है। संभवत: देशभर के राज्यों की राजधानियां प्रेक्षागृहहीन नहीं हैं। हम ही हीन हैं, विहीन हैं, विपन्न हैं, पिछड़े हैं, पंगु हैं, लाचार हैं। बहुत कुछ हैं। रायपुर में चहुं ओर कांक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं, सड़कें बारम्बार बन रही हैं, कलात्मक, सज्जायुक्त दीवारें बनकर और तोड़कर पुन: निर्मित की जा रही हैं, विकास के नाम पर धन उलींचा जा रहा है। नया रायपुर को भव्य बनाया जा रहा है, जहां अभी भी कोई बस नहीं पाया। छत्तीसगढ़ सुंदर हो, नेक विचार है, लेकिन वह सुसंस्कृत हो, कलात्मक, बौद्धिक, वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक आदि दृष्टि से समृद्ध हो, यही राज्य की ख्याति और शक्ति होगी। ऊपरी सुंदरता तो मात्र मुलम्मा है जो क्षणिक सुखकर है।

राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रख्यात नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर, विख्यात लेखक मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल, श्रीकांत वर्मा, शंकर शेष, लोक कला की शीर्षस्थ कलाकार तीजनबाई आदि अनेक हैं, जिनकी दिग-दिगन्तर ख्याति और प्रभान्विति के कारण रायपुर और छत्तीसगढ़ को जाना जाता है। केवल भौतिक विकास नहीं अपितु कला-साहित्य उन्नयन के रास्ते भी विकास का पथ प्रशस्त होता है। बगैर बौद्धिकों का शहर या कला-साहित्य विहीन राज्य या नगर खण्डहर के अलावा और क्या होगा? यह  भी स्पष्ट कर दूं कि यहां बात स्तरीय कला और साहित्य की हो रही है।
छत्तीसगढ़ की सरकार व शासन को अपनी प्राथमिकता में दर्ज करते हुए कलाओं के लिए एक घर बनाना चाहिए। शहर से बाहर नहीं, शहर के बीचों-बीच बनानाा चाहिए। इस रंग-घर या रंग-गढ़ में नाट्य प्रदर्शन के लिए सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह हो, जो नाममात्र के शुल्क पर नाट्य प्रदर्शनों के लिए उपलब्ध हो। रिहर्सल के लिए 3-4 बड़े कमरे भी इस रंग-गढ़ में हों। इसके निर्माण व संचालन समिति में शहर के कुछ वरिष्ठ रंग निर्देशकों को शामिल किया जाए। बाहर से आने वाले रंग दलों के आवास हेतु विश्रामगृह हो। समस्त कलाओं पर केंद्रित एक वृहद पुस्तकालय हो। रंग-गढ़ ऐसी जगह हो जहां कला-साहित्य-संस्कृति पर विचार-विमर्श और गुफ्तगू भी की जा सके, पुराने काफी हाउसों की तरह।

कला-घर या रंग-प्रेक्षागृह भी इतिहास बनाते हैं। मुंबई का पृथ्वी थिएटर इसकी जीती-जागती मिसाल है। उसे मॉल, फ्लैट्स या शॉपिंग सेंटर में तब्दील नहीं किया गया, सहेजा, संजोया, संवारा गया, जीवंत बनााए रखा गया। उसे बेचकर करोड़ों रुपए कमाए जा सकते थे लेकिन उस विरासत को, धरोहर को बचाकर निरंतर संचालित किया जा रहा है, इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है।

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के केंद्रीय स्थल में भारत-भवन के मंच अंतरंग व बहिरंग हैं पास ही रवींद्र भवन है, शहीद भवन है, एल.बी.टी. का मंच जो म.प्र. नाट्य विद्यालय द्वारा उपयोग किया जा रहा आदि मंचों की भरमार है। समूचे छत्तीसगढ़ में इतने सर्वसुविधायुक्त मंच नहीं हैं। जो हैं वो सुविधाविहीन हैं। अतिनाटकीय किस्म के कुछ प्रेक्षागृह हैं यहां। लटकती लाइटें, मटकते माइक, काल-कोठरी सदृश्य ग्रीन रूम (ब्लैक रूम), फटे-टूटे, बदरंगे विंग्स व साइक्लोरामा, गर्मी में प्रेक्षक उबल जाएं, बारिश में फुहर जाएं या उमस जाएं, मंच पर कहा सुन न पाएं, घीसी-पीटी, लूली-लंगड़ी कुर्सियां, गूंज-अनुगूंज भरे हाल हैं जिनमें मरता क्या न करता के अंदाज में नाट्यकर्म संपन्न या विपन्न (जो भी कह लें) हो रहा है। रायपुर में संस्कृति विभाग के मुक्ताकाशी रंगमंच के भरोसे रंगकर्म, कलाकर्म निभ रहा है। जो हर ऋतु के लिए उपयुक्त नहीं है।

वर्ष 1981-82 में मैंने खैरागढ़ विश्वविद्यालय में अपनी नाट्य प्रस्तुति व नाट्य शिविर के दौरान रायपुर में प्रेक्षागृह की मांग उठाई थी। बाद में निरंतर यह मांग हम रंगकर्मी उठाते रहे हैं। राज्य बनने के बाद बहुत उम्मीदें हम सबने पाल रखी थीं परंतु अफसोस है कि राज्य सरकार, प्रशासन, नेता किसी के कान में जूँ तक नहीं रेंग रही। नगर निगम की पूर्व महापौर ने कुछ सकारात्मक पहल की थी। उसके बाद निगम ने पैंतरा बदलना शुरू कर दिया, हालांकि वर्तमान महापौर ने आश्वस्त किया है कि वे पहल करेंगे। कीजिए, सार्थक पहल कीजिए। प्रेक्षागृह बनवाइये, नाम मात्र के शुल्क पर रंगकर्मियों को दिलवाइये, इतिहास बनाइये। इससे रंगमंच निखरेगा, राज्य निखरेगा, प्रेक्षक भी।

(वरिष्ठ नाट्य निर्देशक)

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