सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

रेखा जैन के वास्ते

 

रंगकर्मी, रंग निर्देशक रेखा जैन का भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा में ऐतिहासिक अवदान है। वे इसकी संस्थापक सदस्य थीं। संगठन के आग़ाज़ से ही वे इससे जुड़ गई थीं। उनकी ज़िंदगी के हमसफ़र कवि, आलोचक नेमिचंद्र जैन और वे जब एक बार इस रहगुज़र पर चले, तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। लेकिन इससे पहले रेखा जैन को अपने परिवार से कड़ा विरोध झेलना पड़ा। तमाम भारतीय परिवारों की तरह उनका परिवार भी घोर रूढ़िवादी था। 28 सितम्बर, 1923 को आगरा में जन्मी रेखा जैन, जब नौ साल की थीं, तभी उनका स्कूल जाना बंद करा दिया गया। साढ़े बारह साल की उम्र में उनकी नेमिचंद्र जैन से शादी हो गई। ससुराल में भी उन्हें दक़ियानूसी माहौल मिला। घर में पर्दा प्रथा थी, तो महिलाओं का बाहर निकलना अच्छा नहीं समझा जाता था। नेमिचंद्र जैन वाम राजनीति और सांस्कृतिक आंदोलन में सरगर्म थे। ज़ाहिर है कि रेखा जैन पर इसका असर पड़ा और वे भी उनके साथ सियासी तौर पर सक्रिय हो गईं। एक कॉटन मिल में नौकरी के चलते नेमिचन्द्र जैन कुछ दिन कलकत्ता रहे। कलकत्ता उस वक़्त वाम राजनीति का केन्द्र बना हुआ था। बिनय रॉय, बिजन भट्टाचार्य, ज्योतिन्द्र मित्र, शम्भू मित्र जैसे सियासी एक्टिविस्ट एवं लेखक, कलाकार, गायक, नर्तक कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सांस्कृतिक मोर्चे दोंनों पर एक समान सक्रिय थे। ‘फ्रेंड्स ऑफ़ सोवियत यूनियन’ (एफएसयू) आज़ादी के इन दीवानों का अड्डा था,जहां भविष्य की योजनाओं पर सलाह-मशविरा होता। नए-नए मंसूबे बनते। नेमि और रेखा दोनों ज़ल्द ही यहां के माहौल में पूरी तरह से ढल गए। नेमिचंद्र जैन ने आगे की पढ़ाई के लिए रेखा जैन का नवीं क्लास में दाखिला करवा दिया। पढ़ने और घर के काम के साथ-साथ वे पार्टी क्लास में हिस्सा लेतीं, सांस्कृतिक टोलियों के साथ रोज सुबह प्रभातफेरी के लिए निकलतीं। उस दौर में प्रभातफेरियां, देशवासियों में जन-जागरण का एक बड़ा ज़रिया थीं। कम्युनिस्ट पार्टी, रेखा जैन को जो ज़िम्मेदारी सौंपती, वे उसे संजीदगी से पूरा करतीं। उन्होंने जल्द ही बांग्ला ज़बान पर काबू पा लिया। बिनय रॉय बहुत अच्छा गाना गाते थे। उन्होंने न सिर्फ़ रेखा जैन को गाना सिखाया, बल्कि उन्हें अपनी गायन मंडली में भी शामिल कर लिया।

साल 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। जिसमें प्रदेश के लाखों लोग प्रभावित हुए, हज़ारों लोग काल-कवलित हो गए। अकाल पीड़ितों के लिए राहत जुटाने के वास्ते कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी की अगुआई में यह लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी सामने निकलकर आए और उन्होंने ‘बंगाल कल्चरल स्कवॉड’ स्थापित किया। इस सांस्कृतिक दल के लिए बिजन भट्टाचार्य ने ‘जवानबंदी’ और ‘नबान्न’ नाटक लिखे, तो ज्योतिन्द्र मित्र ने कई जनगीत और कविताएं लिखीं। शम्भु मित्र और बाकी लोग इन जनगीतों और कविताओं को इस अंदाज से गाते कि जनता पर इनका जादुई असर होता। शम्भु मित्र और निरंजन सेन के निर्देशन में कालजयी नाटक ‘जवानबंदी’ और ‘नबान्न’ तैयार हुए। ‘बंगाल कल्चरल स्कवॉड’ ने बंगाल में घूम-घूमकर इन नाटकों के ज़रिए अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया। ‘जवानबंदी’ की कामयाबी को देखते हुए इस नाटक का हिंदी अनुवाद और इसका पूरे देश में मंचन का विचार बना। नेमिचंद्र जैन को इस महत्वपूर्ण काम की ज़िम्मेदारी सौंपी गई और उन्होंने ज़ल्द ही ‘अंतिम अभिलाषा’ के शीर्षक से इसका अनुवाद कर दिया। ‘अंतिम अभिलाषा’ में शंभु मित्र, उषा दत्त, रेबा रॉय के साथ नेमिचंद्र जैन और रेखा जैन ने भी मुख्य भूमिका निभाई।

 रेखा जैन का अभिनय में आग़ाज़ कोई ज़्यादा अच्छा नहीं हुआ। ‘अंतिम अभिलाषा’ की रिहर्सल जब शुरू हुई, तो वे अपने पारिवारिक संस्कारों और झिझक के चलते नाटक में पूरी तरह से खुल नहीं पा रही थीं। बड़ी मुश्किल और जद्दोजहद के बाद रेखा जैन अपनी लय में आई। एक बार जो उनसे यह झिझक टूटी, तो फिर उन्होंने आगे चलकर कई नाटकों, बैले में शानदार अभिनय किया। बहरहाल मुंबई, अहमदाबाद तथा इनके आस-पास के छोटे कस्बों और शहरों में नाटक ‘अंतिम अभिलाषा’ के कई प्रदर्शन हुए। बंगाल अकाल पीड़ितों के लिए खू़ब चंदा इकट्ठा किया गया। ‘बंगाल कल्चरल स्कवॉड’ की कामयाब प्रस्तुतियों से यह विचार निकल कर आया कि क्यों न इसी तर्ज पर एक ‘सेंट्रल ट्रूप’ बनाया जाए, जो पूरे देश में लोगों को जागरूक करे। उनमें एकता और देश की आज़ादी का जज़्बा जगाए। जुलाई, 1944 में बिनय रॉय के नेतृत्व में इप्टा के सबसे सक्रिय समूह ‘सेंट्रल ट्रूप’ का गठन हुआ। जिसमें पूर्णकालिक कार्यकर्ता शामिल थे। इप्टा के इस सेंट्रल स्कवॉड यानी केन्द्रीय दल में अवनि दासगुप्त, शांति बर्धन, उदयशंकर, प्रेम धवन, रेबा रॉय चौधरी, उषा दत्त, प्रीति सरकार, दशरथ लाल, शचीन शंकर, गुल बर्धन, शांता गांधी, दीना पाठक, नरेन्द्र शर्मा, लीला सुन्दरैया, गंगाधरन, नागेश, अपुनी कर्ता, रूबी जोशी, जशवंत ठक्कर, पंडित रविशंकर, अमर शेख़, ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ रेखा जैन की भी भागीदारी थी।

अपने-अपने क्षेत्र के इन महान लेखकों, कलाकारों, नर्तकों, गायकों के साहचर्य ने आगे चलकर ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मोर्टल’, ‘काश्मीर’, ‘नया गांव’, ‘हॉर्डर’ जैसे लाजवाब बैले (नृत्य नाटिकाओं) को जन्म दिया। रेखा जैन ने इन सभी बैले में अभिनय, नृत्य और गायन किया। वे इन नृत्य नाटिकाओं का अभिन्न हिस्सा रहीं। ‘सेंट्रल ट्रूप’ में उन्होंने आखि़र तक काम किया।

आज़ादी के बाद, कुछ दिन ठहराव रहा। फिर रेखा जैन दोबारा नाटकों की दुनिया में रम गईं। इलाहाबाद में निवास के दौरान उन्होंने यहां भी कुछ बेहतरीन नाटक ‘विराज बहू’, ‘चित्रांगदा’ आदि में अभिनय किया और अपनी अदाकारी से लोगों के दिल जीते। साल 1956 में नेमिचंद्र जैन और रेखा जैन दिल्ली चली गईं, जहां वे अपनी ज़िंदगी के आखि़र तक रहीं। दिल्ली में उनकी ज़िंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ। अनायास ही वे बच्चों के रंगमंच से जुड़ीं, लेकिन आगे चलकर ‘बाल रंगमंच’ ही रेखा जैन की पहचान बन गया। उन्होंने बच्चों के लिए कई बाल नाटकों का सफल निर्देशन और मंचन किया। समर चैटर्जी दिल्ली में ‘चिल्ड्रन लिटिल थियेटर’ यानी सीएलटी चलाते थे। बच्चों का थियेटर करते थे। वे रेखा जैन के काम से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, उन्होंने ज़िद कर रेखा को सीएलटी से जोड़ लिया। ना-नुकूर के बाद उन्होंने इस क्षेत्र में अपना काम शुरू किया। रंगमंच और बैले में उनके पुराने अनुभव बेहद काम आए और वे शुरुआत से ही इसमें कामयाब हो गईं। बच्चों के मनोविज्ञान और रुचियों को ध्यान में रखकर रेखा जैन ने जिन नाटकों ‘चिल्ड्रेन्स पार्क’, ‘थप्प रोटी थप्प दाल’, ‘खेल-खिलौनों का संसार’, ‘पुस्तक राज’, ‘उद्यम धीरज बड़ी चीज़ है’, ‘छोटी लाल कोशी’ और ‘पूपू दी चंदा मामा के देश में’ का लेखन और निर्देशन किया। वे सभी काफ़ी पसंद किए गए। बच्चों से लेकर रंग आलोचकों ने भी उन्हें जी-भर कर सराहा।

साल 1956 से लेकर 1962 तक ‘चिल्ड्रन लिटिल थियेटर’ के इतिहास का सुनहारा दौर था। इस दौर में इस संस्था ने बच्चों के लिए अनेक अच्छे नाटकों की रचना की, जिसमें रेखा जैन केन्द्रीय भूमिका में रहीं। साल 1979 में उन्होंने खुद ही बच्चों की एक नाट्य संस्था ‘उमंग’ की स्थापना की। इस संस्था ने बाल रंगमंच के क्षेत्र में अपनी एक ऐतिहासिक भूमिका अदा की। देश में बाल रंगमंच को आगे बढ़ाने के लिए रेखा जैन ने अनेक उद्देश्यपूर्ण नाटक, गीत लिखे, तो उनको निर्देशित भी किया। बच्चों को ध्यान में रखकर लिखे गए, उनके ज़्यादातर नाटक संगीत-नृत्य पर आधारित हैं। उसमें रेखा जैन का सीधा-सीधा यह मक़सद था कि बच्चों को शुरू से सब विधाओं की थोड़ी-थोड़ी जानकारी मिलती रहे। इस संबंध में उनका कहना था, ‘‘बच्चों के साथ काम करते वक़्त मेरे मन में यह चेतना बराबर रहती थी कि अपने इन नाटकों के माध्यम से बच्चों को कुछ न कुछ अन्य विषयों की जानकारी मिले और अच्छी बातों की सीख मिले।’’ उनके लिखे-निर्देशित कुछ चर्चित नाटक हैं-‘खिलौनों का संसार’, ‘दिवाली के पटाखे’, ‘अनोखे वरदान’, ‘पुस्तकों का विद्रोह’, ‘कौन बड़ा कौन छोटा’, ‘अप्सरा का तोता’, ‘रेल ले चली हमें चूं-चूं’, ‘चंड़लिका’, ‘बाल्मीकि प्रतिभा’, ‘ताश के पत्ते’ आदि।

रंगमंच, बाल रंगमंच और नाटक के क्षेत्र में रंगकर्मी रेखा जैन के योगदान को देखते हुए हिंदी अकादमी, साहित्य कला परिषद, उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आदि सरकारी संस्थानों ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित सम्मानों और पुरस्कार से सम्मानित, पुरस्कृत किया। उनके नाटकों का दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, इलाहाबाद समेत देश के कई बड़े महानगरों, शहरों और छोटे कस्बों में मंचन हुआ है। नेमिचंद्र जैन के बाद उन्होंने रंगमंच और नाटक की स्थापित पत्रिका ‘नटरंग’ का संपादन भी किया। रेखा जैन के संपादन में पत्रिका के कई महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए। देश भर में इसकी पहचान हुई। उन्होंने कई किताबें लिखीं। ‘यादघर’, रेखा जैन की संस्मरणात्मक जीवन यात्रा है, तो वहीं ‘बच्चों की दुनिया’ उनके लिखे 31 नाटकों का संकलन है। देश के बाल रंगमंच के साथ रेखा जैन का पांच दशक तक गहरा संबंध रहा। उन्होंने शंभु मित्र, हबीब तनवीर, बी.वी. कारंत, शांति बर्धन, पं.रविशंकर, अवनि दासगुप्त जैसे दिग्गज रंग निर्देशकों और कलाकारों के साथ काम किया। 22 अप्रैल, 2010 को 84 साल की उम्र में रेखा जैन इस दुनिया से हमेशा के लिए रुख़्सत हो गईं। देश की आज़ादी, प्रगतिशील आंदोलन, रंगमंच, बाल रंगमंच और नाटक में उनका जो अविस्मरणीय योगदान है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

आभार: लेखक जाहिद खान 

(राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली समेत मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई महानगरों से एक साथ प्रकाशित दैनिक अख़बार ‘देशबन्धु’ में।)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

राजनेता, राजनीति और समाज सुधार

कल यानि 2 अक्टूबर 2017 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बाल विवाह और दहेज़ के ख़िलाफ़ राज्यव्यापी अभियान की शुरुआत कर रहे हैं. कम से कम मेरी जानकारी में यह पहला राजनीतिक प्रयास है जब कोई सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई व्यक्ति बिना किसी योजना, कार्यक्रम के सामाजिक बदलाव के अभियान की शुरूआत कर रहा है. पिछले 10-12 वर्षों में बिहार में मुख्यमंत्री पद बैठे नीतीश कुमार के इस कदम के क्या मायने हैं इसे नजदीक से देखने और समझने की ज़रूरत है। 'बाल विवाह' और 'दहेज़' विरोधी अभियान के तहत बिहार सरकार के विभाग क्या कर रहे हैं।  नोडल विभाग समाज कल्याण विभाग महिला विकास निगम से नुक्कड़ नाटक करवा रहा है. पोस्टर, होर्डिंग्स, बैनर छपवा रहा है और यह सुनिश्चित करवा रहा है कि आम-ख़ास जगहों पर लगे. शिक्षा विभाग गाँधी जयंती के दिन स्कूल खुलवा कर बच्चों को शपथ दिलवा रहा है कि 18 से कम उम्र की लड़की और 21 से कम उम्र के लड़के की शादी बाल विवाह है और क़ानूनी रूप से अपराध है. दहेज़ ना लेना है, दहेज़ ना देना है और ना दहेज़ के लिए किसी को प्रोत्साहित करना है. मुख्यमन्त्री महोदय सार्वजनिक रूप से अपील कर

आखिर ये कौन से राम हैं

‘श्री रामचंद्र कृपालु भज मन' आज सब ओर रामनवमी की धूम है। मोहल्लों में राम भक्त हिन्दुओं के घरों पर राम ध्वजा फहरा रही है...  मुझे इन लहराते झंडों के बीच अपना बचपन याद आ रहा है।  रामनवमी मेरे परिवार के लिए एक घरेलू उत्सव रहा है। बचपन से लेकर सन 2000 और उसके कुछ और वर्षों तक रामनवमी आती थी। हम सब मिलकर पूजा करते। आंगन में हनुमानी ध्वजा फहरायी जाती थी। हम धनिया और मीठा मिले प्रसाद को खा कर खुश हो जाते थे। श्री राम की याद और मीठा प्रसाद- ऐसा ही रहा, हमारा रामनवमी। उस समय भी अख़बार और दुकानों में रामनवमी की थोड़ी धूम होती थी। कुम्हरार गाॅंव से हाथी, घोड़ों के साथ हनुमान ध्वजा निकलती थी। यहाँ राम की तस्वीर भी होती थी। लेकिन तस्वीर में सीता, हनुमान, लक्ष्मण, भरत और पूरी अयोध्या शामिल होती थी। किसी तस्वीर में जामवंत, सुग्रीव और विभीषण भी दिख जाते थें। सबके राम का राजदरबार होता। वे सबको आश्वस्त करते- हम हैं।  महेंद्रू में महावीर मंदिर के हनुमान जी को सजाया सँवारा जाता था। कभी दोपहर या कभी देर शाम पूजा होती थी। हम बाल टोली की नज़र तो ब्राउन कागज के दोने में रखे दो लड्डुओं पर होती थी। इस मंडल